बसंत पंचमी की देहरी पर
जब सरसों के पीले फूल सर उठाते हैं
कुमुदिनी की बहार मीठी बयार छेड़ती है
दोपहरिया लम्बी होती जाती है
और शाम खुशगंवार
हरियाली का आँचल पेड़ों को सहलाता है
ताज़ा तरीन हलके हरे पत्ते
कोपलों से फुफुसाते हैं
धानी सी चुनर
अंगड़ाई भर के सज जाती है
बारिश की फुहारें चमकीले छीटें बरसाती है
अंतर्मन गीला कर जाती है
रोआं रोआं जो कलप गया था ठण्ड के अन्धकार में
चंचल चपल हो जाता है
इस मादक बसंत बहार में
सुनहरी सूरज की किरणें उत्तेजित होती जाती हैं
जैसे किशोरावस्था का रोमांच
और चढ़ती है सोपान धीरे धीरे
जब गर्मी की परिकाष्ठा हो जाती है
और वसुंधरा दोपहरी में पंचांगनी ताप्ती है
मानसून की बारिश भी दस्तक देती है
और तपिश पे अल्पविराम लगाती है
रस चूता है पत्तों की ओट से
हरियाली वातानुकूलित हो जाती है
एक ठंडी सांस भर्ती हैं चेतनाएं
मीठे अल्फोंसो की चुस्की के लिए
और लंगड़ा के एक रसभरे फांक के लिए
मीठे फालसे लद जाते हैं पेड़ों के झुरमुठ से
और चंचल चहल रौशनी, टूट के बिखरने को बेकरार
बुनती हैं एक धूप छाँव का तानाबाना
जैसे गरम लू के थपेड़े वैसी इत्र की हल्की चटक
खूब रौनक लगाती है
जबतक की गर्मी अपना साज़ोसामान समेट नहीं लेती
और पतझढ़ आगाज़ भरता है |
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Nice description of spring. Bahut khub.
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Such wonderous images you evoked.
Deepika Sharma
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